🌹करणीयमेत्त सुत्त🌹
करणीयमेत्त सुत्त, जिसे 'मेत्ता सुत्त' भी कहा जाता है, बौद्ध धर्म के पालि कैनन में एक प्रसिद्ध सुत्त है। इसमें मेत्ता या मैत्री भावना (प्रेमपूर्ण करुणा) के अभ्यास का वर्णन है, जो सभी प्राणियों के प्रति अच्छी इच्छाओं का भाव है। इस सुत्त में उन गुणों और क्रियाओं का वर्णन है जो एक व्यक्ति को अपनाना चाहिए ताकि वह मेत्ता का अभ्यास कर सके और अंततः शांति और सुख प्राप्त कर सके¹। यह सुत्त बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक है और इसका अभ्यास विश्व भर के बौद्ध अनुयायियों द्वारा किया जाता है।
🌹जिसके प्रभाव से यक्ष अपना भीषण भयरूप नहीं दिखा सकते और जिसका बिना थके दिन-रात अभ्यास करने से सोया हुआ सुख की नींद सोता है, तथा सोया हुआ व्यक्ति कोई दुःस्वप्न (पाप) नहीं देखता है इत्यादि, इस प्रकार के गुणों से युक्त उस परित्राण को कह रहे हैं :----
🌹[जिसे अपना कुशल करना है, स्वार्थ साधना है और परम-पद निर्वाण उपलब्ध करना है, उसे चाहिए कि वह सुयोग्य बने, सरल बने, अति सरल बने, सुभाषी बने, मृदु-स्वभाव वाला बने और निरभिमानी बने॥1॥]🌹
🌹[वह सदा संतुष्ट रहे। थोड़े में अपना पोषण करे। अल्पकृत्य रहे - यानी दीर्घ-सूत्री योजनाओं में न उलझा रहे। सादगी का जीवन अपनाए। शांत इंद्रिय बने। परिपक्व प्रज्ञावान बने। अप्रगल्भ बने, यानी दुस्साहसी न हो और न ही जाति-कुल के मिथ्याभिमान में अनुरक्त हो॥2॥]🌹
🌹[वह यत्किंचित भी दुराचरण न करे, जिसके कारण अन्य विज्ञजन उसे बुरा कहें। वह अपने मन में सदैव यही भावना करे- “सारे प्राणी सुखी हों! निर्भय सक्षम हों! आत्म-सुख-लाभी हों!॥3॥"]🌹
🌹[“वे प्राणी चाहे स्थावर हों या जंगम, दीर्घ देहधारी हों या महान देहधारी, मध्यम देहधारी हों या ह्रस्व देहधारी, सूक्ष्म देहधारी हों या स्थूल देहधारी॥4॥]🌹
🌹[दृश्य हों या अदृश्य, सुदूरवासी हों या अदूरवासी, जन्में हों या अजन्में, बिना भेद के सभी प्राणी आत्म-सुख-लाभी हों!"॥5॥]🌹
🌹[“वे परस्पर प्रवंचना न करें, परस्पर अवमान-अपमान न करें, क्रोध या वैमनस्य के वशीभूत होकर एक-दूसरे के दुःख की कामना न करें"॥6॥]🌹
🌹[जिस प्रकार जीवन की भी बाजी लगाकर मां अपने इकलौते पुत्र की रक्षा करती है, उसी प्रकार वह भी समस्त प्राणियों के प्रति अपने मन में अपरिमित मैत्रीभाव बढ़ाए॥7॥]🌹
🌹[वह अपने अंतर की अपरिमित मैत्री-भावना ऊपर-नीचे और आड़े-तिरछे समस्त लोकों में व्याप्त कर ले- बिना किसी बाधा के, बिना किसी बैर के, बिना किसी द्रोह के॥8॥]🌹
🌹[जब तक निद्रा के अधीन नहीं हैं तब तक खड़े, बैठे या लेटे हर अवस्था में इस अपरिमित मैत्री-भावना की जागरूकता को अधिष्ठित रखे, कायम रखे। इसे ही तो भगवान ने ब्रह्म-विहार कहा है॥9॥]🌹
🌹[इस प्रकार मैत्री ब्रह्म-विहार करने वाला साधक कभी दार्शनिक उलझनों में नहीं पड़ता। वह शील सम्पन्न और सम्यक-दर्शन सम्पन्न हो जाता है। काम-तृष्णा का सम्पूर्ण उच्छेद कर लेता है और पुनः गर्भ-शयन [पुनर्जन्म] के दुःख से नितांत विमुक्ति पा लेता है॥10॥]🌹
🌹पुस्तक: धम्म-वंदना।
विपश्यना विशोधन विन्यास॥🌹
✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺
✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺
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