Sunday, March 10, 2024

🌹करणीयमेत्त सुत्त🌹 'मेत्ता सुत्त'

 




🌹करणीयमेत्त सुत्त🌹 

करणीयमेत्त सुत्त, जिसे 'मेत्ता सुत्त' भी कहा जाता है, बौद्ध धर्म के पालि कैनन में एक प्रसिद्ध सुत्त है। इसमें मेत्ता या मैत्री भावना (प्रेमपूर्ण करुणा) के अभ्यास का वर्णन है, जो सभी प्राणियों के प्रति अच्छी इच्छाओं का भाव है। इस सुत्त में उन गुणों और क्रियाओं का वर्णन है जो एक व्यक्ति को अपनाना चाहिए ताकि वह मेत्ता का अभ्यास कर सके और अंततः शांति और सुख प्राप्त कर सके¹। यह सुत्त बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक है और इसका अभ्यास विश्व भर के बौद्ध अनुयायियों द्वारा किया जाता है।
🌹जिसके प्रभाव से यक्ष अपना भीषण भयरूप नहीं दिखा सकते और जिसका  बिना थके दिन-रात अभ्यास करने से सोया हुआ सुख की नींद सोता है, तथा सोया हुआ व्यक्ति कोई दुःस्वप्न (पाप) नहीं देखता है इत्यादि, इस प्रकार के गुणों से युक्त उस परित्राण को कह रहे हैं :----

🌹[जिसे अपना कुशल करना है, स्वार्थ साधना है और परम-पद निर्वाण उपलब्ध करना है, उसे चाहिए कि वह सुयोग्य बने, सरल बने, अति सरल बने, सुभाषी बने, मृदु-स्वभाव वाला बने और निरभिमानी बने॥1॥]🌹

🌹[वह सदा संतुष्ट रहे। थोड़े में अपना पोषण करे। अल्पकृत्य रहे - यानी दीर्घ-सूत्री योजनाओं में न उलझा रहे। सादगी का जीवन अपनाए। शांत इंद्रिय बने। परिपक्व प्रज्ञावान बने। अप्रगल्भ बने, यानी दुस्साहसी न हो और न ही जाति-कुल के मिथ्याभिमान में अनुरक्त हो॥2॥]🌹

🌹[वह यत्किंचित भी दुराचरण न करे, जिसके कारण अन्य विज्ञजन उसे बुरा कहें। वह अपने मन में सदैव यही भावना करे- “सारे प्राणी सुखी हों! निर्भय सक्षम हों! आत्म-सुख-लाभी हों!॥3॥"]🌹 

🌹[“वे प्राणी चाहे स्थावर हों या जंगम, दीर्घ देहधारी हों या महान देहधारी, मध्यम देहधारी हों या ह्रस्व देहधारी, सूक्ष्म देहधारी हों या स्थूल देहधारी॥4॥]🌹  

🌹[दृश्य हों या अदृश्य, सुदूरवासी हों या अदूरवासी, जन्में हों या अजन्में, बिना भेद के सभी प्राणी आत्म-सुख-लाभी हों!"॥5॥]🌹 

🌹[“वे परस्पर प्रवंचना न करें, परस्पर अवमान-अपमान न करें, क्रोध या वैमनस्य के वशीभूत होकर एक-दूसरे के दुःख की कामना न करें"॥6॥]🌹 

🌹[जिस प्रकार जीवन की भी बाजी लगाकर मां अपने इकलौते पुत्र की रक्षा करती है, उसी प्रकार वह भी समस्त प्राणियों के प्रति अपने मन में अपरिमित मैत्रीभाव बढ़ाए॥7॥]🌹 

🌹[वह अपने अंतर की अपरिमित मैत्री-भावना ऊपर-नीचे और आड़े-तिरछे समस्त लोकों में व्याप्त कर ले- बिना किसी बाधा के, बिना किसी बैर के, बिना किसी द्रोह के॥8॥]🌹 

🌹[जब तक निद्रा के अधीन नहीं हैं तब तक खड़े, बैठे या लेटे हर अवस्था में इस अपरिमित मैत्री-भावना की जागरूकता को अधिष्ठित रखे, कायम रखे। इसे ही तो भगवान ने ब्रह्म-विहार कहा है॥9॥]🌹 

🌹[इस प्रकार मैत्री ब्रह्म-विहार करने वाला साधक कभी दार्शनिक उलझनों में नहीं पड़ता। वह शील सम्पन्न और सम्यक-दर्शन सम्पन्न हो जाता है। काम-तृष्णा का सम्पूर्ण उच्छेद कर लेता है और पुनः गर्भ-शयन [पुनर्जन्म] के दुःख से नितांत विमुक्ति पा लेता है॥10॥]🌹 

                     

🌹पुस्तक: धम्म-वंदना।
 विपश्यना विशोधन विन्यास॥🌹

                         
                     ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺
                     ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺
                     ✺भवतु सब्ब मंङ्गलं✺

Saturday, March 9, 2024

सत्य घटना पर आधारित: मगध के सम्राट अजातशत्रु और महामात्य कुलगुरु राक्षस के बीच हुआ एक प्रेरक संवाद



सत्य घटना पर आधारित: मगध के सम्राट अजातशत्रु और महामात्य कुलगुरु राक्षस के बीच हुआ एक प्रेरक संवाद 

एक बार महामात्य राक्षस एक लंबी यात्रा के बाद जब मगध वापस लौटकर सम्राट से मिलने पहुँचे तो उन्हें जानकारी मिली कि बुद्ध के घोर दुश्मन सम्राट अजातशत्रु अब स्वयं बुद्ध के अनुयायी बन गये हैं। यह सुनकर ब्राह्मण महामात्य राक्षस बहुत परेशान हो गये। वे सीधे सम्राट अजातशत्रु से मिलने राजदरबार जा पहुँचे। वहाँ उनके और सम्राट अजातशत्रु के बीच जो संवाद हुआ उसे जानिए।
महामात्य राक्षस: सम्राट, मैं यह क्या सुन रहा हूँ कि आप अपने क्षत्रिय धर्म को कैसे त्याग कर बुद्ध के अनुयायी बन गये हैं? 

सम्राट अजातशत्रु: आप सही सुन रहे हैं, महामात्य राक्षस।
महामात्य राक्षस: यह तो घोर अनर्थ हो गया महाराज।
सम्राट अजातशत्रु: कैसे, महामात्य राक्षस?

ब्रामहामात्य राक्षस: अच्छा होता यदि में यात्रा पर ना जाता। आप ऐसा घनघोर अनर्थ कैसे कर सकते हैं? क्षत्रिय धर्म ही आपके लिये सर्वोपरि है उसे आप कैसे छोड़ सकते हैं? आपका कर्तव्य है कि मगध की सीमाएँ बढ़ायें और चक्रवर्ती सम्राट बनें।
सम्राट अजातशत्रु: मैं अपना कर्तव्य भली भांति जानता हूँ, कुलगुरु। 

महामात्य राक्षस: लगता है बुद्ध ने आपको भी आपके पिता सम्राट बिंबसार की भाँति भ्रमित कर दिया है। बुद्ध के पास कोई सम्मोहन शक्ति है जिसके उपयोग से उसने आपके पिता को भी इसी तरह भ्रमित कर दिया था।
सम्राट अजातशत्रु: महामात्य, कृपया कर बुद्ध पर झूठे लांछन ना लगाएं।

महामात्य राक्षस: महाराज? मैं सत्य कह रहा हूँ। बुद्ध ने आज तक सिर्फ़ ऐसी बातें कही हैं। जिससे राज्य में अनेकों प्रश्न उठ रहे हैं। परंतु किसी का भी उत्तर नहीं मिला।
सम्राट अजातशत्रु: जैसे की क्या? कुछ उदाहरण देकर बतलाइए। 

महामात्य राक्षस: जैसे कि, ये संसार शाश्वत है या नश्वर। यह सृष्टि सीमित है अथवा अनंत। शरीर आत्मा दो हैं या एक? मृत्यु के पश्चात, हमारा अस्तित्व रहता है या उसका विनाश हो जाता है?
सम्राट अजातशत्रु: मैं इन किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दूंगा, कुलगुरु महामात्य। ये सब आपकी बुद्धि की उपज है। बुद्ध ने कभी भी अपने उपदेशों में इन बातों को कभी ज़रा भी तूल नहीं देते हैं। 

महामात्य राक्षस: यदि इन शाश्वत प्रश्नों का उत्तर बुद्ध के पास से तो नहीं है तो वो किस विषय पर उपदेश देते हैं? उनके प्रवचनों का हमें क्या लाभ? 
सम्राट अजातशत्रु: बुद्ध कहते हैं कि अपने शरीर और अपनी साँसों को साधो, उससे अपने अंतर्मन को तोड़ती-मरोड़ती विभिन्न भावनाओं को समझो। अपने दुख: और संताप पर विजय पाओ। जीवन की छोटी छोटी अनेक लहरों के थपेड़ों में सजग और ध्यानपूर्ण जियो। बुद्ध, जीवन से मुँह मोड़ने को नहीं कहते, चेतना से जीने को कहते हैं। कुलगुरु, जीवन इन्हीं छोटी छोटी बातों का मूल्य रत्नकोष है। ना की बड़ी सैद्धांतिक बातों का।
महामात्य राक्षस: सम्राट छोटे-छोटे लोग इन्हीं छोटी-छोटी खुशियों के साथ जीते हैं परंतु आप तो मगध सम्राट हैं! आप का स्तर, इस मगध में सबसे सबसे ऊपर है।

सम्राट अजातशत्रु: कुलगुरु, यह ऊपर और नीचे के स्तर का विचार भी मनुष्य बुद्धि की उपज ही है। 
महामात्य राक्षस: लगता है, महाराज आप विनाश की ओर जा रहे हैं। एक क्षत्रिय होकर भी ज्ञानियों जैसी बातें कर रहे हैं। आप क्षत्रिय हैं या ब्राह्मण? 

सम्राट अजातशत्रु: क्षत्रिय और ब्राह्मण का अंतर भी मनुष्य बुद्धि ने ही पैदा किया है। मुझे बुद्ध के चरणों में शांति मिली है।
महामात्य राक्षस: महाराज, यदि आपको शांति चाहिए तो मैं इसके उपाय आपको बता सकता। सम्राट अजातशत्रु: आपसे मुझे आज तक केवल अशांति ही मिली है कुलकुरु। आप क्या मुझे शांति देंगे? आपकी बातों में आकर मैं अपने धर्मपरायण पिता की हत्या का कारण बना। आँखें बंद करता हूँ तो स्वर्गीय महाराज बिंबसार की प्रेम भरी मूरत टकटकी बांधे मुझे निहारती दिखाई देती है। अब न रातों को नींद आती है, ना दिन को चैन मिलता है।

महामात्य राक्षस: क्षमा करें, महाराज। मैं एक ब्राह्मण हूँ इसलिए सत्य कहने से संकोच नहीं करूँगा। आपके विषाद का कारण पिता की हत्या का पछतावा नहीं बल्कि नगरवधू आम्रपाली का बुद्ध की भिक्षुणी बन जाना है। इस बात से आपको बहुत आघात पहुंचा है।
सम्राट अजातशत्रु: इस बात को सुनते ही सम्राट अजातशत्रु आवेश में आकर अपनी तलवार खींच लेते हैं।

महामात्य राक्षस: सम्राट को म्यान से तलवार खींचते हुआ देख, उपहास पूर्वक कटाक्ष करते हुए कहते हैं। लगता है बुश ने आपको यही (अर्थात् आवेश और उसमे किसी ब्राह्मण अथवा अपने कुलगुरु की हत्या) करना सिखाया है। मगध के लोगों को आप से बहुत सारी आशाएं थीं, परंतु आप तो हमारा ही (एक ब्राह्मण कुलगुरु का) दमन का रहे हैं? चलिए यह भी सही। हम भी इसके लिए तैयार है। यह कहकर महामात्य राक्षस दरबार से चले जाते हैं।

तब सम्राट अजातशत्रु का सेनापति जो उस समय राज दरबार में यह सारा वादविवाद देख और सुन रहा था बहुत आश्चर्य भाव से कह उठता है, महाराज, आप में यह परिवर्तन देखकर मुझे बहुत आश्चर्य है और मैं यह देखकर बहुत हैरान हूँ कि अजातशत्रु की उठी हुई तलवार आज पहली बार म्यान से बाहर निकलने के बाद, बिना वार किए वापस म्यान में कैसे चली गयी?
सम्राट अजातशत्रु: यह सुनकर शत्रु। सो। सम्राट अजातशत्रु। बहुत शांत भाव से कहते हैं। की मुझे। कुल गुरु की हत्या करने में। तनिक संकोच ना होता। मगर यदि मैं ऐसा करता। तो वह मेरे गुरु। भगवान बुद्ध का अपमान होता। बड़े ऊंचे स्वर में बोलकर या मेरी बेइज्जती कर कोई मुझे कितना भी उत्तेजित न कर लें। अब मैं, कभी हिंसा के मार्ग पर नहीं जाऊंगा और उसी मार्ग पर चलूँगा जो मेरे गुरू भगवान बुद्ध मुझे दिखाएंगे।

इस सत्य घटना से आपने क्या ग्रहण किया आप जाने और यदि आप बताना चाहें तो कमेंट बॉक्स में लिख दें जिससे कोई और भी प्रेरणा ले सके। आप सभी का मंगल हो।

साभार : Dr Nirmal Gupta, cardiologist, SGPGI